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कविता

जूते जहाँ सिले जाते हैं सबके नाप के

राजकुमार कुंभज


गहरी होती जा रही थी रात में
पार्टी दफ्तर भी होता जा रहा था श्मशान
और राजनीति के रसोइए भी
आहिस्ता-आहिस्ता लौट रहे थे घर
भूख की जगह भूख बरकरार थी
बहुत दिन हुए खाया-पकाया नहीं मुर्गा
इतनी गहरी रात में मिलेगा कहाँ ?
भूख पर गर्मा-गर्म बहस के बाद
मोची मोहल्ले की तरफ चलना ही ठीक रहेगा
वहाँ, न हिंदू रहते हैं, न मुसलमान
सिर्फ मुर्गे रहते हैं वहाँ
बीच-बहस और बहस बाद, सोचा सबने
और सबके लिए
जूते जहाँ सिले जाते हैं सबके नाप के
विद्रोह उठता है वहीं से पहले-पहल।

 


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